भारत सरकार नेपाल के इस क़दम से काफ़ी नाराज़ है और सरकार ने आधिकारिक रूप से इसपर आपत्ति भी जताई है
नेपाल की कैबिनेट ने इसे अपना जायज़ दावा क़रार देते हुए कहा कि 'महाकाली (शारदा) नदी का स्रोत दरअसल लिम्पियाधुरा ही है' जो फ़िलहाल भारत के उत्तराखण्ड का हिस्सा है.
नेपाल की कैबिनेट का यह फ़ैसला भारत की ओर से लिपुलेख इलाक़े में सीमा सड़क के उद्धाटन के दस दिनों बाद आया था.
लिपुलेख से होकर ही तिब्बत चीन के मानसरोवर जाने का रास्ता है. इस सड़क के बनाए जाने के बाद नेपाल ने कड़े शब्दों में भारत के क़दम का विरोध किया था.
नया राजनीतिक नक़्शा सामने आने के बाद से ही नेपाल की मीडिया में अधिकांश बड़ी सुर्खियाँ इस मुद्दे के इर्द-गिर्द बन रही हैं. सभी अख़बारों ने बीते दिनों में इस मुद्दे को प्रमुखता से प्रकाशित किया है.
हालांकि कुछ अख़बारों ने नए नक़्शे पर नेपाल के दावे के साथ-साथ भारतीय विदेश मंत्रालय की ओर से बुधवार को दी गई दलीलों और टिप्पणियों को भी अपने यहाँ जगह दी है.
'अपने क्षेत्र की रक्षा करने में कतराना कैसा'
नेपाल सरकार के स्वामित्व वाले दैनिक अख़बार 'गोरखा पत्र' ने पहले पन्ने पर नया नक़्शा प्रकाशित किया है और शीर्षक लिखा है: 'नेपाल का नया नक़्शा सार्वजनिक हुआ'. इसके नीचे नेपाल की भूमि प्रबंधन मंत्री पद्मा कुमारी आर्यल का बयान है, 'हम अपने राष्ट्रीय क्षेत्रों की रक्षा करने से कतराते नहीं हैं.'सरकार के स्वामित्व वाले एक अन्य अख़बार, 'द राइज़िंग नेपाल' ने भी बैनर हेडलाइन दी है, जिसमें लिखा है, 'सरकार ने कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाधुरा को शामिल कर नया मानचित्र जारी किया.' अख़बार ने इसके नीचे सरकार द्वारा जारी किया नया नक़्शा प्रकाशित किया है.
निजी स्वामित्व वाले नामी दैनिक अख़बारों- कांतिपुर, द काठमांडू पोस्ट, अन्नापूर्णा पोस्ट, नागरिक और नया पत्रिका ने भी इस मुद्दे पर सभी अपडेट और विश्लेषणों के साथ नये नक़्शे को प्रकाशित किया है.
साथ ही इन अख़बारों ने भारतीय विदेश मंत्रालय द्वारा जारी किये गए बयान को भी छापा है. इन अख़बारों ने नेपाल के लोगों को यह समझाने का प्रयास किया है कि इस मुद्दे पर भारत की चिंताएं क्या हैं.
दैनिक अख़बार कांतिपुर ने काफ़ी सारी सूचनाओं के साथ एक आर्टिकल प्रकाशित किया है, जिसे अख़बार ने स्पष्ट प्रमाण बताया है, कि आख़िर क्यों नेपाल का अपने नक़्शे को लिम्पियाधुरा, कालापानी और लिपुलेख तक फैला लेना जायज़ है.
अख़बार ने 1816 सुगौली संधि, भारत द्वारा जारी किये गए 1857 के मानचित्र, 1860 की संधि, 1875 के मानचित्र, स्थानीय लोगों की भूमि राजस्व की रसीदों, 1958 के चुनाव में मतदाता सूची और 1961 की राष्ट्रीय जनगणना का हवाला देते हुए नेपाल सरकार के क़दम को सही ठहराया है.
'भारत और नेपाल की मानचित्र पर जंग'
नेपाल के लगभग सभी निजी क्षेत्र के मीडिया संस्थानों ने भारतीय विदेश मंत्रालय के बयान को यह कहते हुए स्थान दिया है कि 'नेपाल का ये क़दम भारत के लिए अस्वीकार्य है.''द काठमांडू पोस्ट' अख़बार ने कुछ विशेषज्ञों का नज़रिया इस शीर्षक के साथ प्रकाशित किया है, 'एक नए मानचित्र को लेकर नेपाल और भारत के बीच जंग की स्थिति.'
इसी महीने में नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने कोविड-19 महामारी के ख़िलाफ़ भारत के साथ एकजुट रहने की प्रतिबद्धता जताई थी.
लेकिन जब केपी शर्मा ओली ने नेपाल का नया नक़्शा जारी करते हुए यह स्पष्ट किया कि 'नेपाल अपनी ज़मीन का एक इंच हिस्सा भी नहीं छोड़ेगा' तो नेपाल के सभी प्रमुख मीडिया संस्थानों ने उनके इस बयान को 'साहसिक और बोल्ड' बताया.
दैनिक अख़बार नागरिक ने अपने संपादकीय में, जिसका शीर्षक है- 'शुक्रिया!', नेपाल सरकार से 'राजनयिक बातचीत शुरू करके, इस विवाद को सुलझाने' का आग्रह किया है ताकि 'दोनों देशों के बीच अनूठे संबंध और भी अधिक ऊंचाइयों तक' पहुँच सकें.
'नए नक़्शे का जश्न हास्यास्पद'
लेकिन कांतिपुर अख़बार के एक संपादकीय लेखक चंद्र किशोर ने इस मुद्दे पर अपने महत्वपूर्ण विचार रखे हैं.'द बॉउंड्री ड्रॉन' शीर्षक वाले अपने लेख में उन्होंने चेतावनी दी है कि 'जब तक नेपाली लोगों की आवाजाही के लिए ज़रूरी इंफ़्रास्ट्रक्चर का विकास नहीं किया जाता, और जब तक कालापानी के लोग भारत पर निर्भर हैं, तब तक नेपाली सरकार की दिवाली पर नए नक़्शे का जश्न मनाने की प्रस्तावित योजना हास्यास्पद है. इससे सीमा पर रह रहे लोगों की तकलीफ़ों पर नमक छिड़कने के अलावा कुछ हासिल नहीं होगा.'
चंद्र किशोर की रिपोर्ट नेपाल की सीमा पर काली नदी से पूर्व में बसे सुदूर पश्चिमी प्रांत के हालात पर रोशनी डालती है, जहाँ नेपाली लोग भारतीय ब्रिज, फ़ुटपाथ और रोड का इस्तेमाल अपनी आवाजाही के लिए करने को मजबूर हैं, वहीं दूसरी ओर इस इलाक़े में बाज़ार, स्कूल और स्वास्थ्य सेवा केंद्र जैसी मूलभूत सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हैं.
इन सीमावर्ती इलाक़ों में रहने वाले लोगों की ये हालत उन नारों से एकदम अलग है जिन्हें बीते दशकों में काठमांडू के लोगों से सुना गया है जिसमें वो भारत के कालापानी, लिम्पियाधुरा और लिपुलेख के क़ब्ज़े के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते रहे हैं.
भारत ने इन इलाक़ों पर अपना क़ब्ज़ा होने से हमेशा इनकार ही किया है.
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